वो मेरा बचपन
हिमालय कि गोद मे मेरा घर
घर क्या वो तो स्वर्ग से भी सुन्दर था
न जाने क्या क्या खेल खेला करती थी उस स्वर्ग
कभी रूठने व कभी मनाने का स्वांग चलता था सहेलियो कई बीच मै
साल कि चार ऋतुओ कि कोई खबर नहीं
न ही आज कि कोई खबर थी न ही कल कि कोई चिंता
बस उस समय को ही सब कुछ मान लिया था
कभी एक पेड़ पर चढ़ना था कभी दूसरे पेड़ पर चढ़ना था
बस उसी खेल मे हारना और जितना था लकस्य
लक्सय को हासिल करने कई लिये न जाने कितने चोटे आई हात पैरौ मे
वो नीसा आज भी है इस मर्त शरीर पर
पुष्पा जोशी